एक नितांत महानगरीय जीवन था
और एक खोने-पाने-बचाने का रूढ़ क्रम
एक अस्तित्व था और एक प्रक्रिया
कई आदर्श और उदाहरण थे
संबल और प्रेरणास्रोत बनने के लिए
लोग थे जाने कहाँ-कहाँ से आकर अपना विरोध दर्ज कराते हुए
उपेक्षाएँ थीं आत्महीनताएँ थीं और मैं था
भारतीय राजधानी के कोने लाल करता हुआ
इसकी दीवारों को नम करता हुआ
यातायात संबंधी नियमों को ध्वस्त करता हुआ
बेवजह लड़ता-झगड़ता और बहस करता हुआ
एक अव्यावहारिक और अवांछित व्यक्तित्व
समाज बदलने के ठेके नहीं उठाए मैंने
और यकीन जानिए यह सब लिखते हुए मेरी आँखों में आँसू हैं